Saturday, April 24, 2010

नास्तिकता सहज है

|| नास्ति दतम् नास्ति हूतम् नास्ति परलोकम् ||


यह पंक्ति मैं पहली बार पढ़ रहा हूं।

जब मैं नास्तिक हुआ तो मैंने चार्वाक या माक्र्स का नाम तक नहीं सुना था। ऐसी कोई भारतीय या अन्य परंपरा है, इसकी मुझे हवा तक नहीं थी। कोई वामपंथी पार्टी भी है, यह भी मुझे बहुत बाद में जाकर पता चला। हां, बाद में सरिता-मुक्ता फ़िर हंस जैसी कुछ पत्रिकाओं से इस विचार को बल ज़रुर मिला। मेरा मानना है कि नास्तिकता सहज स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। हर बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है। धर्म, ईश्वर और आस्तिकता से उसका परिचय इस दुनिया में आने के बाद कराया जाता है, इसी दुनिया के कुछ लोगों द्वारा। कल्पना कीजिए कि इस पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह है जहां ईश्वर का नामो-निशान तक नहीं है। ईश्वर की कोई ख़बर तक उस देश में कहीं से नहीं आती। कोई मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज, बड़े होते बच्चों को ईश्वर की कैसी भी जानकारी देने में असमर्थ हैं, क्योंकि उन्हें ख़ुद ही नहीं पता। क़िस्सों और क़िताबों में ईश्वर का कोई ज़िक्र तक नहीं है। तब भी क्या वहां ईश्वर के अस्तित्व या जन्म की कोई संभावना हो सकती है !?

दूसरे, क्या नास्तिकता को किसी परंपरा की ज़रुरत है ? मेरी समझ में जहां तर्क, विवेक, विचार, मौलिकता और वैज्ञानिकता है वहां कभी न कभी नास्तिकता आ ही जाएगी। चाहे ऐसी कोई परंपरा हो न हो। नास्तिकता तो ख़ुद ही परंपरा के खि़लाफ़ एक विचार है। यह तो प्रगतिशीलता, तर्कशीलता वैज्ञानिेकता और मानवता का मिश्रण है। परंपरा के नष्ट होने से नास्तिकता नष्ट हो जाएगी, ऐसा मुझे नहीं लगता। हो सकता है कि परंपरा के रहते नास्तिकों की संख्या कुछ ज़्यादा होती। पर ऐसे नास्तिक परंपरा से आए आस्तिकों की तरह ही रुढ़ और हठधर्मी होते। जिस तरह हम देखते हैं कि कई बार राजनीतिक पार्टियों के संपर्क में आने से नास्तिक हो गए लोग घटना-विशेष की प्रतिक्रिया में ठीक कट्टरपंथिओं जैसा ही आचरण करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि हम यह आचरण घोषित कट्टरपंथियों के विरोध में कर रहे हैं इसलिए यह कट्टरपंथ नहीं, हमारी ‘वैचारिक प्रतिबद्धता’ है।

दोस्त लोग मानते हैं कि नास्तिकता किसी तरह घिसट-घिसट कर जीवित है। ऐसा शायद वे संख्या और सांसरिक/भौतिक सफ़लताओं के आधार पर तय कर लेते है। यही लोग ख़ुदको अघ्यात्मवादी भी मानते हैं। संख्या बल और भौतिक सफलता को मानक बनाएं तो इंसानियत भी एक अप्रासंगिक शय हो चुकी है और इसे भी दफ़ना देना चाहिए। और अगर आप सफ़लताओं की वजह से आस्तिकता के साथ हैं तो इसका एक मतलब यह भी है कि आप उस विचार और सही-ग़लत की वजह से कम और अपने फ़ायदे की वजह से उसके साथ ज़्यादा हैं। कलको आपको नास्तिकता में सांसरिक फ़ायदे दिखेंगे तो आप उसके गले में हाथ डाल देंगे। अगर नास्तिकता घिसटकर चल रही है और इस वजह से अप्रासंगिक है तो भैया सारी क्रांतियां और स्वतंत्रता आंदोलन भी कभी न कभी घिसटते ही हैं। घिसटने से इतना डरना या उसे हेय दृष्टि से क्यों देखना !? दलितों, अश्वेतों और महिलाओं के आंदोलन भी तो सैकड़ों सालों से घिसट ही रहे थे। आज किसी अंजाम पर पहुंचते भी तो दिख रहे हैं।

--संजय ग्रोवर

Thursday, April 15, 2010

इस ब्लॉग का उद्देश्य क्या है ?

आपका इस ब्लॉग में स्वागत है. यह ब्लॉग भारतीय दर्शन की उस परम्परा को सामने रखने का विनम्र प्रयास है जिसे "लोकायत " कहते हैं. इस दार्शनिक परम्परा के अनुयायी ईश्वर की सत्ता पर विश्वाश नही करते थे. उनका मानना था की क्रमबद्ध व्यवस्था ही विश्व के होने का एकमात्र कारण है, एवं इसमें किसी अन्य बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नही है. भारतीय दर्शन की इस परम्परा को बलपूर्वक नष्ट कर दिए जाने का आभास मिलता है, क्योंकि हमारे प्रतिद्वंदी ग्रथों में वर्णित भौतिकवादियों के भाष्य और ग्रन्थ अब उपलब्ध नही है, न ही इस दार्शनिक धारा का कोई नामलेवा बचा है. इस ब्लॉग के माध्यम से हमारा प्रयास मानवतावादी दृष्टि कोण को उभारने का रहेगा जो किसी संप्रदाय अथवा धर्म (religion) के हस्तक्षेप से मुक्त हो. अगर आप ईश्वर की सत्ता में अविश्वाश रखते हैं, मानव को स्वयं का नियंता समझते हैं इस ब्लॉग में आपका स्वागत है. सदस्य बनने के लिए आपका नास्तिक होना एकमात्र योग्यता है fgh1256 एट जीमेल डोट काम पर मेल करें. यहाँ आप अपने प्रश्न जिज्ञासाएं एवं नास्तिकता तथा धर्म (religion)विषयक विचार पर तर्क-वितर्क कर सकते हैं, शर्त सिर्फ यह है की भाषा अपशब्द एवं व्यक्तिगत आक्षेपों से मुक्त होनी चाहिए.