Tuesday, July 27, 2010

OSHO: God Is Not a Solution - but a Problem



** भगवान का शुक्र है कि वह नहीं है ! **
एक तो ये सज्जन विवादास्पद हैं। तिसपर यूट्यूब वालों का कुछ पता नहीं कब वीडियो हटाकर बोल दें कि भैय्या, वहीं आकर देख लो ! इसलिए चिंतन-मनन, बहस-मुबाहिसा जो करना हो, कर डालिए।
इतनी सार्थक  बहस शायद नास्तिक ही कर सकते हैं.

Thursday, July 8, 2010

माधवाचार्य और लोकायत दर्शन

भारतीय दर्शन के इतिहास में भौतिकवाद और आदर्शवाद की दो परस्पर विरोधी धाराएँ एक साथ चलीं हैं दार्शनिक एक के बाद एक आते गए , लेकिन उन्होंने किसी नए मत का प्रतिपादन करके सिर्फ किसी प्राचीन दार्शनिक संप्रदाय से सहमति जताते हुए उसे बल प्रदान किया। उन्होंने स्वयं किसी नए संप्रदाय की नीव रखकर ऐसा लिखा की यह पहले से वर्णित है और यहाँ सिर्फ इसका विस्तार अथवा खुलासा किया जा रहा है अर्थात मेरा कोई स्वतंत्र अस्तित्व है, ऐसा दावा किसी भी दार्शनिक द्वारा नही किया गया। उन्होंने अपने मत के संरक्षण के लिए उसे पोषित किया और विरोधी मत की आलोचना की. आज के कई आधुनिक विद्वान प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के विवरण के लिए माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह पर आश्रित है. हम इस आलेख में यह जानने का प्रयास करेंगे की क्या इस ग्रन्थ को आधार बनाकर हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए?.

माधवाचार्य या माधव विद्यारण्य, विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक राजाओं के संरक्षक एवं दार्शनिक थे। उन्होने सर्वदर्शनसंग्रह की रचना की जो हिन्दुओं के दार्शनिक सम्प्रदायों के दर्शनों का संग्रह है। इसके अलावा उन्होने अद्वैत
दर्शन के 'पंचदशी' नामक ग्रन्थ की रचना भी की। उनका जन्म सन् १२६८ में पम्पाक्षेत्र (वर्तमान हम्पी) में मायणाचार्य एवं श्रीमतीदेवी के यहाँ हुआ था। माधवाचार्य विद्यारण्य ने लोकायत को सबसे निम्न कोटि का दर्शन बताया है और अद्वैत वेदान्त को सबसे उत्कृष्ट। हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने लोकदर्शन और भौतिकवादी दर्शन जिसे लोकायत कहा जाता है, के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया वह है "चावार्क" या "बर्हस्पत्य" दर्शन। दार्शनिक माध्वाचार्य विद्यारण्य द्वारा लिखित भारतीय दर्शन के सारग्रन्थ सर्वदर्शन सग्रंह मे लिखे लोकायत के विवरण पर एक नजर डालने पर भौतिकवादियों के प्रति उनकी घृणा का हम स्पष्ट अवलोकन कर सकते हैं।

भौतिकवाद के विरोधियों ने जिन युक्तिओं से संदेहवादी और भौतिकवादी दर्शनों को भाववाद में प्रक्षिप्त करने का काम किया है, उनमें से एक यह भी है कि उसके सत्यापन के लिए वे यह तर्क देते हैं कि सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार शनै: - शनै: ही करना उचित होता है इसलिए कई भाववादियों ने अपने ग्रंथों में दर्शन का विवरण भौतिकवाद के सिद्धांत से प्रारंभ करके अंततः तथाकथित "सर्वोंच्च आध्यात्मिक सत्य" तक पहुँचाने का मार्ग अपनाया है यह एक चतुराई पूर्ण युक्ति है, जिससे की प्रतिपक्षी का तिरिस्कार करके उन्हें उपहास का पात्र बनाया जा सके। इसके पीछे यह तर्क भी दिया जाता है कि जिस दार्शनिक संप्रदाय का प्रतिनिधित्व लेखक कर रहा है उसे छोड़कर शेष दार्शनिक मान्यताएं एक श्रृंखला के रूप में हैं, जिनमे पहली कड़ी से अधिक उच्च कोटि की अध्यात्मिक व्याख्या दूसरी कड़ी में उपस्थित है इसी प्रकार क्रमशः जो दर्शन अंत में है, वह सर्वोच्च है, शेष सब उस तक पहुचने के मार्ग भर है। माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह में भी यही युक्ति देखने को मिलती है उन्होंने वेदान्त को सबसे अंतिम
में रखा है। कई आधुनिक विद्वान लोकायत मत के विवरण के लिए माधवाचार्य पर आश्रित रहे हैं। माधवाचार्य की लोकायत के प्रति मंसूबों में ईमानदारी है, इस तथ्य को मिथ्या साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण हैं।

माधवाचार्य और लोकायत मत के मूल काल में करीब दो हजार वर्षों का अंतर है। प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथो कूटदंत सुत्त और ब्रह्मजाल सुत्त जैसे ग्रंथों में लोकायत मत का विवरण है, जिसमे शरीर और आत्मा को एक ही माना गया है, और इस मत का चलन बुद्ध के काल के पूर्व भी था। दूसरा जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है, माधवाचार्य विजय नगर के संस्थापकों के संरक्षक थे यह समझा जाता है कि साम्राज्य स्थापित करने के लिए उन्होंने मध्य युग के एक मठ से धन प्राप्त किया था अतः उनकी सहानूभूति का रुख शासक वर्ग के दर्शन अथवा वेदान्त के प्रति होना स्वाभाविक सा प्रतीत होता है।

माधवाचार्य ने अपने विरोधियों के प्रति जिस तर्क शैली का परिचय दिया है, वह विचित्र है वे खुद को अपने विरोधियों का समर्थक बताते हुए उनकी तरफ से तर्क प्रस्तुत करते थे जबकि स्वयं उनके विचार भिन्न थे। इस प्रकार की शैली के कारण ही माधवाचार्य ने यह उल्लेख नहीं किया कि लोकायत मतानुयायी क्या तर्क प्रस्तुत करते हैं वे इस बात में उलझे रहे की अगर वे लोकायतिक होते तो क्या कहते। उन्होंने वेदांती तर्क शैली को लोकयातिकों पर थोपा और अपने इच्छानुसार निष्कर्ष निकाल लाये। उदहारण के लिए एक प्रसंग का उल्लेख करना उचित होगा - स्वयं माधवाचार्य ने यह स्वीकार किया है किलोकयातिओं ने "श्रुति" को पाखंडियों की कपट रचना बताया है। आगे वे फिर कहते हैं की लोकयातिओं ने अपने विचारों के समर्थन के लिए उपनिषद का उद्धरण दिया। यह दोनों बातें परस्पर विरोधाभास लिए हुए हैं। यह नितांत ही कल्पनामूलक बात है कि किसी मत का विरोध करने वाला उस मत
में प्रयुक्त युक्तिओं का सहारा अपने कार्य के लिए लेगा।

माधवाचार्य के आभामंडल से परे जाकर जब हम अन्य ग्रंथों वर्णित लोकायत मत पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो कई बातें सामने आती है। उदाहरण के लिए शुक्रनीति सार में स्पस्ट लिखा है की नास्तिकों (लोकयातिओं ) के तर्क बहुत प्रबल हुआ करते थे और उनका रचनात्मक पक्ष भी था। नास्तिकों की मान्यता "सर्व स्वाभाविक मत " अर्थात ऐसा सिद्धांत जिसके अनुसार सब कुछ प्राकृतिक नियमों के अधीन है, एक प्रकार की रचनात्मकता लिए हुए है कि जैसा विवरण माधवाचार्य ने दिया है, वैसा विध्वंसकारी। इसके अलावा कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में सांख्य और योग के साथ लोकायत का उल्लेख किया और इसे तर्क का विज्ञान अथवा आन्वीक्षिकी कहा। मिलिंद में कहानी के नायक नागसेन को लोकायत का ज्ञान प्राप्त है। हर्षचरित (कवेल और थामस द्वारा अनुदित) में जिसमे उपनिषद के अनुयायियों और लोकयातिओं को एक साथ संबोधित किया गया है। लोकयातियों को जिन विद्वानों के समकक्ष रखा गया है, उनमे उपनिषद के अनुयायिओं का होना यह प्रमाणित करता है कि विद्वजनो के मध्य लोकायत मत को वेदान्त दर्शन की तरह ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसी प्रकार एक अन्य पुस्तक विनय पिटक के चुल्लवग्ग में एक दृष्टान्त है, जिसमे किसी महात्मा द्वारा भिक्षुओं को लोकायत प्रणाली का अध्ययन करने से रोकने के लिए निर्देश दिए जा रहे
हैं यहाँ एक तथ्य ध्यातव्य है कि उन्होंने निम्न कोटि की अन्य विद्याओं के साथ बलि देने को भी रखा है। जो यह प्रमाणित करता है कि उपनिषद के अनुयायिओं को लोकयातिओं के समकक्ष रखा जाता था। यह माधवाचार्य द्वारा वर्णित विध्वंसकारी वितंडावादिओं के चित्र से तो कदापि मेल नही खाता।

उपरोक्त कई कारणों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि माधवाचार्य द्वारा वर्णित लोकायत का विवरण प्रमाणिक नही है। माधवाचार्य लोकयातिओं को विध्वंसकारी बता रहे थे, वह तो कपोल कल्पित था ही, असल में उनका दृष्टिकोण स्वयं ही तर्क विज्ञान के प्रति विध्वंसकारी था। वे राजनितिक कारणों से ईश्वर, परलोक आदि की
मान्यता को स्थापित करने के लिए बाध्य थे और उन्होंने यह बेहतर तरीके से किया भी है। हम थोडा ध्यान दें तो जान सकते हैं कि उस काल में जब शासक वर्ग को जनता को नियत्रण में रखने के उद्धेश्य से पौराणिक कथाओं और अन्धविश्वास का सृजन करना पड़ रहा था, माधवाचार्य इन सब से कैसे अछूते रहते, वह भी एक राज्य के राजा के
संरक्षक के रूप में यहाँ गौर तलब हो की लगभग सभी धर्मों में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बताया गया है और उससे विद्रोह को पाप। प्राचीन भौतिकवाद के समृद्ध इतिहास को जानने का प्रयत्न किसी वेदांत दार्शनिक के ग्रन्थ के आधार पर करते वक्त, किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले इन दो विचारधाराओं के मध्य हुए संघर्ष का स्मरण रखना चाहिए।